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अनसुना वसंत...

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कामदेव के इस वसन्त मौसम पर नवीन पुष्पों, लताओं, मलय पवन, और पलाश, गूँजते भँवरों, पीली सरसों, कूकती चिड़ियाओं वाले श्रृंगार के निबंध लिख लिखकर बच्चे पक चुके हैं, शायद अब स्कूलों में न लिखवाया जाता हो, पर हमने तो जो निबंध सातवीं क्लास में लिखा था वो साल दर साल बारहवीं तक साथ निभाता रहा, उसमें कालिदास का एक श्लोक डाल देने से निबंध की छटा दर्शनीय हो गई थी, वह निबंध मैंने श्री व्यथित हृदय की बाबा आदम के जमाने की पीली पड़ चुकी किताब 'आधुनिक हिंदी निबंध' की सहायता से लिखा था, मुझे लगता है वसन्त के ज्यादा श्रृंगार से अंततः उनका हृदय व्यथित हुआ और उन्होंने अपना नाम ही बदल लिया! खैर! मन की गहराइयों में जमी हुई वसन्त की कल्पनाएं मैंने कभी सच में नहीं देखी, हाँ उन मनःचित्रों का आंशिक रूप यदा कदा देखा है। परवान पर चढ़ता वसन्त निहायत अजीब मौसम है, रजाई में दुबकी गर्मी बाहर निकल आई है और सूरज ने छतों पर धूप सेकते बूढ़ों को नीचे भेज दिया है। पंखा कितने नम्बर पर चलाना है और छोटा मोटा स्वैटर पहनना है या हाफ बुर्शट ही बहुत है की उलझन खड़ी हो गई है, क्योंकि माँ हमेशा कहती आई है, 'जाती जाती सर्द...