क्या ऋग्वेद का पुरुष सूक्त शूद्रों का अपमान करता है?
वेद सनातन संस्कृति का वह मानसरोवर है जिसके अवगाहन से हमारे पूर्वजों ने श्रेष्ठ से श्रेष्ठ मणि-रत्नों का आहरण किया है। वेद सारी मानवजाति का हित साधने के लिए ही धरा पर प्रवृत्त हुए हैं। यदि धर्म के मूलभूत इन वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराणों को ही निकालकर भारत को देखा जाएगा तो इसमें अन्य देशों से विलक्षण कौनसी विशेषता रह जाएगी? निश्चय वेद ही भारत माता के प्राण हैं। यह बात सभी भारतीयों को विचार करनी चाहिए। भारत विरोधी दुःशासनों द्वारा इसीलिए वेदमाता के केश खींचे जाते रहे हैं और स्वयं माता के पुत्र ही किंकर्तव्यविमूढ़ से यह वीभत्स दृश्य देख रहे हैं।
यूं तो सनातन धर्म के द्वेषी सारे वेदों पर ही प्रहार करते हैं पर कुछ सूक्तों के खिलाफ तो उन्होंने जिहाद ही छेड़ रखा है। ऐसा ही एक सूक्त है ऋग्वेद के दशम मण्डल का पुरुष सूक्त। यजुर्वेद के 31वें अध्याय में भी यह सूक्त आया है। इस सूक्त में विराट पुरुष के रूप में परब्रह्म के अंग-प्रत्यंगों का वर्णन किया गया है। वैदिक वर्ण व्यवस्था का सबसे प्रबल प्रमाण इसी सूक्त का मन्त्र है जिसकी विकृत व्याख्या करके मैक्समूलर, ग्रिफिथ आदि पश्चिमी विद्वानों, उनके मानस चेले वामपंथी और अम्बेडकरवादी सनातन धर्मद्वेषियों ने हिन्दू समाज में जहर की खेती की है। वह मन्त्र है,
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥
-- ऋग्वेद 10.90, यजुर्वेद 31वां अध्याय
जिसका अर्थ है कि उस विराट पुरुष परमात्मा के मुख से ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई, बाहुओं से क्षत्रियों की, उदर से वैश्यों की और पदों (चरणों) से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। यह विराट पुरुष कोई और नहीं स्वयं भगवान विष्णु ही सनातन धर्म में प्रसिद्ध हैं।वामपंथियों/अम्बेडकरवादियों का दुष्प्रचार यह है कि सनातन धर्म की तथाकथित ब्राह्मणवादी शक्तियों ने जानबूझकर शूद्रों को पैरों से उत्पन्न बतलाया है ताकि उनका अपमान किया जा सके। उनका मत है कि पैर शरीर के घृणित अंग हैं जिनसे सम्बन्ध अपमान का परिचायक है, इसीलिए सनातन धर्म ने शूद्रों को पैरों में रौंदकर उनका शोषण किया है। वेदमन्त्रों की अवैदिक, मनमानी और झूठी व्याख्या करके वे शूद्र हिन्दुओं के मन में हीनभावना और घृणा के बीज बोते हैं। यह भी हिन्दू धर्म को तोड़ने का उनका एक षड्यंत्र ही है।
वामपंथी और नवबौद्ध हमारे एक ही वेदमाता के उदर से उत्पन्न सहोदर हिन्दू भाइयों को श्रीविष्णु के चरणों से उत्पन्न हुआ बताकर निम्न दिखाते हैं, उसके पीछे उनका दोष इतना ही है कि सनातन धर्म का उनको किंचित न्यून सा भी ज्ञान नहीं। उनको यह ज्ञान नहीं कि हम हिन्दूओं में तो श्रीभगवान के श्रीचरणों का ही महत्व सर्वाधिक है।
श्रीहरि ही क्यों? हिन्दूओं में प्राणिमात्र के चरणस्पर्श की परंपरा है, हर जीव में अंतर्निहित भगवदतत्व को हम 'नमस्ते' करते हैं, नमन करते हैं। हम गुरुजनों के, माता-पिता के, वरिष्ठों के भी जब सम्मान को उद्दत होते हैं तो सहसा उनके चरणों में अपने शीश झुका देते हैं। चरणस्पर्श भी केवल हाथ से छूकर नहीं, दण्डवत प्रणाम हमारे पूज्यों को करते हैं। हिन्दूओं के अधिकांश घर जो पश्चिमी आंधी से प्रभावित नहीं हुए हैं, उनमें बड़े बुजुर्गों के पैर दबा दबाकर चरणस्पर्श करने की परंपरा है, ताकि उन वरिष्ठ लोगों के पैर यदि दुख रहे हैं तो उन्हें आराम पहुंचे। और इस सम्मान से तृप्त हुए वरिष्ठजन आशीर्वादों की बौछार से हमारा कल्याण कर देते हैं। यह है चरणों की महिमा। अब क्या हम चरणों से घृणा करते हैं? क्या हम चरणों को निम्न समझते हैं? यदि ऐसा होता तो हम चरणस्पर्श क्यों करते? सनातन धर्मद्वेषी यह बात न समझकर श्रीहरिपादपद्मों से प्रसूत हमारे सहोदर शूद्र भाइयों को बरगलाकर हमसे ही अलग करने का षड्यंत्र रचते हैं।
'श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये' कहकर जिन श्रीराम के चरणों की हम शरण मांगते हैं, उन श्रीराम के श्रीचरणों के नित्य सेवक शूद्र भाई तो हमारे और भी अधिक पूज्य हैं, हमारी सेवा के अधिकारी हैं। यही तो वे वीर हैं, जिन्होंने दरिद्रता से लेकर दुत्कार तक सब कुछ सहा पर अपने हिन्दू धर्म को से विमुख नहीं हुए। आज भी देखिए विभिन्न पदयात्राओं, कांवड़ यात्राओं में जो विराट हिन्दुत्व घनीभूत होता है उसका मुख्य भाग कौन बनाता है? यही शूद्र भाई। सभी मंदिरों में देखिए, लोकदेवताओं के मेले देखिए, यही शूद्र भाई हिन्दू परंपराओं के लिए जी जान से जुटे मिलते हैं। इन्हीं के घर आपको सबसे ज्यादा देवी देवताओं के चित्र मिल जाएंगे।
- मुदित मित्तल
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