सब जीवों में ईश्वर को देखने वाला धर्म..
हर जगह भगवान के होने का हिन्दू सिद्धांत केवल कहने मात्र का नहीं है। हिन्दू धर्म के हर ग्रन्थ, दर्शन, मत, सम्प्रदाय ने एक स्वर में सब जीवों में एकत्व की उद्घोषणा की है। यह सिद्धान्त न सिर्फ विराट हिन्दू समाज का मुख्य परिचायक है बल्कि यत्र-तत्र-सर्वत्र यदा-कदा-सर्वदा दृष्टिगोचर होता है। हिन्दू समाज इस सिद्धांत को अपने रोज के जीवन में जीता है।
यजुर्वेद ने जहाँ, "यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यन्ति।" कहकर सभी भूतों को अपनी ही आत्मा जान कहा वहीं ऋग्वेद ने "रूपं रूपं प्रतिरुपो बभूव" कहकर अनन्त रूपों को प्रभु के अनन्त प्रतिबिम्ब ही बता दिया। फिर यदि हिन्दू सब प्राणियों में भगवान का ही रूप देखते हैं तो क्या आश्चर्य है? हिन्दू के बच्चे जब छोटे होते हैं तो उन्हें कुत्ते और गाय को रोटी खिलाना सिखाया जाता है, वहीं मुस्लिम बच्चे शिशुवस्था से अपने घरों में पशुओं की निर्मम हत्याओं के वीभत्स रक्तरंजित दृश्यों को देखकर बड़े होते हैं। राम कृष्ण बुद्ध महावीर की संतानें ही चींटियों का ध्यान रखकर कदम बढ़ाती हैं। मांसाहारी भी चाहे जितने भी तर्क करें पर मांसाहार वैदिक मान्यताओं पर जायज नहीं ठहरता है यही सत्य है।
जहाँ अन्य सभी मजहब वालों की प्रेम आदि सद्भावनाएँ केवल अपने मजहब वालों तक सीमित रहती हैं वहीं सनातन धर्म की यह विराट प्रेमभावना हर बन्धन को तोड़कर मनुष्य तो क्या विश्व के सब जीवों तक विस्तीर्ण है। अद्वैतवादी जहाँ, "एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः" कहकर सब आत्माओं को अपनी आत्मा ही मानते हैं वहीं द्वैतवादी, "आत्मवत सर्वभूतेषु" से सब आत्माओं को अपनी आत्मा समान जानते हैं।
देवरहा बाबा सबसे कहा करते थे, "तू मेरा प्यारा आत्मा है"। स्वामी दयानन्द "दयाया आनन्दो विलसति परस्स्वात्मविदितः", "दया के आनन्द से जो सुशोभित हैं वो सब जीवों को स्वयं की आत्मा समान जानते हैं" के स्वरूप थे। स्वामी विवेकानन्द सहस्त्रों बार जन्म लेकर जगत के दुःखों को दूर करना चाहते थे, कहते थे केवल मेरी मुक्ति से क्या होता है? सबको साथ लेकर उस मार्ग पर जाना होगा। सब जीव में हमारे श्रीभगवान ही वास करते हैं, इसीलिए तो ये गजराज मरने के बाद ऐसा सम्मान पा रहे हैं, पूजे जा रहे हैं। पर इस आध्यात्म और अहिंसा का कॉकटेल न बनाएं, आतताइयों का समूल उच्छेद ही धर्म है। संसार के लिए केवल हिन्दू जीवन का मार्ग ही कल्याणकारी है, अन्य सब मार्ग पतन के मार्ग हैं....
यजुर्वेद ने जहाँ, "यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यन्ति।" कहकर सभी भूतों को अपनी ही आत्मा जान कहा वहीं ऋग्वेद ने "रूपं रूपं प्रतिरुपो बभूव" कहकर अनन्त रूपों को प्रभु के अनन्त प्रतिबिम्ब ही बता दिया। फिर यदि हिन्दू सब प्राणियों में भगवान का ही रूप देखते हैं तो क्या आश्चर्य है? हिन्दू के बच्चे जब छोटे होते हैं तो उन्हें कुत्ते और गाय को रोटी खिलाना सिखाया जाता है, वहीं मुस्लिम बच्चे शिशुवस्था से अपने घरों में पशुओं की निर्मम हत्याओं के वीभत्स रक्तरंजित दृश्यों को देखकर बड़े होते हैं। राम कृष्ण बुद्ध महावीर की संतानें ही चींटियों का ध्यान रखकर कदम बढ़ाती हैं। मांसाहारी भी चाहे जितने भी तर्क करें पर मांसाहार वैदिक मान्यताओं पर जायज नहीं ठहरता है यही सत्य है।
जहाँ अन्य सभी मजहब वालों की प्रेम आदि सद्भावनाएँ केवल अपने मजहब वालों तक सीमित रहती हैं वहीं सनातन धर्म की यह विराट प्रेमभावना हर बन्धन को तोड़कर मनुष्य तो क्या विश्व के सब जीवों तक विस्तीर्ण है। अद्वैतवादी जहाँ, "एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः" कहकर सब आत्माओं को अपनी आत्मा ही मानते हैं वहीं द्वैतवादी, "आत्मवत सर्वभूतेषु" से सब आत्माओं को अपनी आत्मा समान जानते हैं।
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