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क्या रावण ने सीताजी का स्पर्श नहीं किया था? बड़ा प्रश्न!

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आजकल हिन्दुओं में बड़ी चतुराई से यह तथ्य फैलाया गया है कि रावण ने किसी स्त्री का स्पर्श नहीं किया था, उसमें वासना थी तो संयम भी था, आदि आदि जिससे रावण को चरित्रवान साबित किया जा सके और लोगों को श्रीराम से दूर करके राक्षस रावण के समीप ले जाया जा सके। पर क्या ये वास्तव में सत्य है कि रावण ने किसी परस्त्री का स्पर्श नहीं किया? सीताजी का स्पर्श नहीं किया? तो जवाब है कि यह पूरी तरह झूठ है!! श्रीराम के जीवन का सबसे प्रमाणिक ग्रन्थ है वाल्मीकि रामायण जो कि श्रीराम के समकालीन ऋषि वाल्मीकि द्वारा रचित है, श्रीराम के जीवन पर यही सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। इसके बाद गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीरामचरितमानस व ऋषि कम्बन रचित तमिल ग्रन्थ कम्ब रामायण आती है। रामचरितमानस और कम्ब रामायण, दोनों के ही रचियताओं ने ग्रन्थ के शुरुआत में ही स्पष्ट रूप से कहा है कि हम यह ग्रन्थ वाल्मीकि रामायण के आधार पर लिख रहे हैं। इसलिए इन तीनों में भी संस्कृत का ग्रन्थ वाल्मीकि रामायण ही सबसे ज्यादा प्रमाणिक है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण एक बहुत ही दुष्ट राक्षस था जो कि सभी अवगुणों की खान था, वह यज्ञों में मां...

वेदमूर्ति पण्डित श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी का 150वां जन्मवर्ष

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वेदविद्या का अनुशीलन करने के पक्षपाती लोगों में पण्डितजी का नाम ही पर्याप्त परिचय है। वैदिक साहित्य और संस्कृत को जनसामान्य की पहुंच में लाने का ऐसा महनीय कार्य उन्होंने किया था जैसा करने की इच्छा कभी दयानन्द स्वामी ने की थी। स्वामी दयानन्द ने हिन्दी को वेदभाष्य की भाषा बनाकर वेदविस्मृत लोगों में वेदों के प्रति एक गम्भीर आकर्षण पैदा कर दिया था परन्तु दो ही वेदों का भाष्य वे कर सके। इस कार्य को उन्हीं की सी तितीक्षा वाले उनके पट्ट शिष्य श्रीपाद सातवलेकर ने आगे बढ़ाया और चारों वेदों का 'सुबोध हिन्दी भाष्य' तैयार कर हिन्दू समाज में इसे सुगम्य बना दिया। आर्यसमाज की आधारभूत सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका जैसी पुस्तकों का मराठी में भाष्य करने वाले पण्डित सातवलेकर तब भी धारा में बंधे नहीं रहे, स्वामी दयानन्द की सी परिशोधन की दृष्टि लेकर उनके सिद्धांतों में भी परिशोधन से पीछे नहीं हटे और अकेले ही "स्वाध्याय मण्डल" की स्थापना करके वेदभाष्य के पुरुषार्थ में लग गए। लोकमान्य तिलक जैसे मनीषी के प्रभाव से कांग्रेस से जुड़े और स्वदेशी पर व्याख्यान देकर स्वाधीनता के यज्ञ म...

"दक्षिणा" देने से ही क्यों मिलता है धार्मिक कर्मों का फल.

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यजुर्वेद में एक बहुत सुंदर मन्त्र(१) है, वह कहता है ब्रह्मचर्य आदि व्रतों से ही दीक्षा प्राप्त होती है अर्थात् ब्रह्मविद्या या किसी अन्य विद्या में प्रवेश मिलता है। फिर दीक्षा से दक्षिणा अर्थात् धन समृद्धि आदि प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। यहाँ दक्षिणा मिलने का अर्थ है दक्षिणा देना, वेद ने यही माना है कि जो देता है उसे देवता और अधिक देते हैं। जो नहीं देता है, देवता उसका धन छीनकर दानियों को ही दे देते हैं।(२) फिर कहता है दक्षिणा से श्रद्धा प्राप्त होती है, और श्रद्धा से सत्य प्राप्त होता है। क्रम है, व्रत --> दीक्षा --> दक्षिणा --> श्रद्धा --> सत्य। मध्य में दक्षिणा है, एक बार दीक्षित हो गए, मार्ग पर बढ़ गए, और फिर दक्षिणा में लोभ किया तो मार्ग नष्ट हो जाता है। इसलिए विद्वानों, गुरु, आचार्य को दक्षिणा और पात्रों को दान देने से ही मार्ग आगे प्रशस्त होता है। दक्षिणा देने से अपने गुरु, आचार्य में श्रद्धा बढ़ती है, वे भी अपनी अन्य सांसारिक चिंताओं से मुक्ति पाकर शिष्य या यजमान के कल्याण के लिए और उत्साह से लग जाते हैं और अंततः सत्य से साक्षात्कार कराते हैं। अब दक्षिणा क्या...

क्या ऋग्वेद का पुरुष सूक्त शूद्रों का अपमान करता है?

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वेद सनातन संस्कृति का वह मानसरोवर है जिसके अवगाहन से हमारे पूर्वजों ने श्रेष्ठ से श्रेष्ठ मणि-रत्नों का आहरण किया है। वेद सारी मानवजाति का हित साधने के लिए ही धरा पर प्रवृत्त हुए हैं। यदि धर्म के मूलभूत इन वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराणों को ही निकालकर भारत को देखा जाएगा तो इसमें अन्य देशों से विलक्षण कौनसी विशेषता रह जाएगी? निश्चय वेद ही भारत माता के प्राण हैं। यह बात सभी भारतीयों को विचार करनी चाहिए। भारत विरोधी दुःशासनों द्वारा इसीलिए वेदमाता के केश खींचे जाते रहे हैं और स्वयं माता के पुत्र ही किंकर्तव्यविमूढ़ से यह वीभत्स दृश्य देख रहे हैं। यूं तो सनातन धर्म के द्वेषी सारे वेदों पर ही प्रहार करते हैं पर कुछ सूक्तों के खिलाफ तो उन्होंने जिहाद ही छेड़ रखा है। ऐसा ही एक सूक्त है ऋग्वेद के दशम मण्डल का पुरुष सूक्त। यजुर्वेद के 31वें अध्याय में भी यह सूक्त आया है। इस सूक्त में विराट पुरुष के रूप में परब्रह्म के अंग-प्रत्यंगों का वर्णन किया गया है। वैदिक वर्ण व्यवस्था का सबसे प्रबल प्रमाण इसी सूक्त का मन्त्र है जिसकी विकृत व्याख्या करके मैक्समूलर, ग्रिफिथ आदि पश्चिमी विद्वानों, उनके मानस...

कोर्ट के भी पहले से हिन्दू क्यों मानते हैं गंगा-यमुना को जीवित

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कुछ महीने पहले नैनीताल हाईकोर्ट ने गंगा नदी को देश की पहली जीवित इकाई के रूप में मान्यता दी थीऔर गंगा-यमुना को जीवित मनुष्य के समान अधिकार देने का फैसला किया था। इस फैसले के बाद भारत की दोनों महत्वपूर्ण नदियों गंगा और यमुना को संविधान की ओर से नागरिकों को मुहैया कराए गए सभी अधिकार दिए गए थे। गौरतलब है कि न्यूजीलैंड ने भी अपनी वांगानुई नदी को एक जीवित संस्था के रूप में मान्यता दी हुई है। यह बहुत ही सराहनीय कदम था कि दोनों पवित्र नदियों को कोर्ट ने जीवित मानकर मनुष्यों के सभी संवैधानिक अधिकार दिए पर यदि हम न्यूजीलैंड से पहले ऐसा करते तो बात ही अलग होती। क्योंकि भारतीय संस्कृति तो गंगा यमुना को माता कहकर मनुष्य और उससे भी ऊपर देवता की कोटि में रखती है, खैर अदालत ने यह फैसला देकर वैदिक संस्कृति का मान बढ़ाया था। परन्तु खेद है कि हिंदुत्व और संस्कृति की रक्षा करने का दंभ भरने वाली उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने ही इस फैसले के विरुद्ध कोर्ट में याचिका दायर की क्योंकि हिंदुत्व एक चुनाव जीतने का साधन है साध्य नहीं है। खैर हम बात करते हैं कि कैसे वैदिक दृष्टि में गंगा और यमुना जीव...

कैसे बचाया था गोस्वामी तुलसीदास जी ने हिन्दूओं को मुसलमान बनने से?

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गोस्वामी तुलसीदास जी के नाम से हमें सबसे पहले रामचरितमानस की याद आती है। वह अलौकिक काव्य जिसे गाकर कई सदियों से समूचे उत्तर पूर्वी भारत के करोड़ों लोग अपने इष्ट श्रीराम को याद करते आये हैं। हिंदुओं के करोड़ों घरों में एक भी घर ऐसा नहीं मिल सकता जिसमें यह ग्रन्थ न हो। श्री राम और हनुमानजी के भक्तों के लिए तो रामचरितमानस और उसका सुंदरकांड प्राण सर्वस्व ही है। पर श्रीराम की भक्ति के अलावा भी रामचरितमानस का एक बहुत विशिष्ट योगदान भारत के इतिहास में रहा है, जिसपर कम ही इतिहासकारों ने नजर डाली है। प्रभु श्रीराम की भक्ति के ही नहीं बल्कि एक बहुत ही बड़े उद्देश्य के लिए गोस्वामी जी ने रामचरितमानस की रचना की थी। आज हम उस महान उद्देश्य को देखेंगे... गोस्वामी तुलसीदास जी के वक्त भारतवर्ष मुगल बादशाहों के अधीन था। लगभग तीन सौ वर्षों के मुस्लिम शासन से त्रस्त भारत में गुरुकुलों का बहुत ह्रास हो चूका था। लूट खसोट और रोज के अत्याचारों से अपने प्राण बचाने की फुर्सत ही हिन्दुओं को नहीं मिलती थी, ऐसे में धर्म ग्रन्थों का अध्ययन बहुत कठिन हो गया था। ग्रामीण शोषित अनाथ हिन्दू जनता संस्कृत ज्ञान न ह...

कौन थे धर्मसम्राट करपात्री जी महाराज? जानिए 8 पंक्तियों में

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कुछ बुद्धिमान जन भगवान हरि(विष्णु) का भजन करते हैं, और कुछ दूसरे संसार तापहारी हर(शंकर) की सेवा करते हैं। किन्तु धर्म की हानि से खिन्न मनवाले हम लोगों की उपासना का पात्र तो हरि और हर का वह अनुपम अद्वैत है, जिसे हमने अपनी आंखों से देखा है। (श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज के संन्यास का नाम श्रीहरिहरानन्द सरस्वती है) ||१|| "क्या उदात्त लोककल्याकारिणी राजनीति में प्रवीण 'विष्णुगुप्त'-- आचार्य चाणक्य, या समस्त शास्त्रों में दक्ष देवगुरु 'बृहस्पति' हैं, या फिर श्रीप्रभु का गुणगान करने स े धन्य हुए 'शुकदेवजी' ही हैं?" जिनके बारे में लोग ऐसा सन्देह किया करते थे -- वे स्वामी करपात्रीजी महाराज वंदना के पात्र हैं ||२|| जिनकी जिह्वा पर नवरसमयी सरस्वती निवास करती थी, लेखों के रूप में जिनकी महान यशोराशि की लेखाएँ आज भी शोभा पा रही हैं, और जिनके हृदय में कमल के मध्यभाग सरीखी मृदुलता थी, वे सर्वभूतहृदय संयमी स्वामी करपात्रीजी किसके स्मरणीय नहीं हैं? ||३|| वंदनीय हैं वे स्वामी करपात्रीजी महाराज जिन मनीषी ने अनेकानेक धर्मसंस्थाओं की स्थापना की, जिन्होंने रामायण...