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अनसुना वसंत...

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कामदेव के इस वसन्त मौसम पर नवीन पुष्पों, लताओं, मलय पवन, और पलाश, गूँजते भँवरों, पीली सरसों, कूकती चिड़ियाओं वाले श्रृंगार के निबंध लिख लिखकर बच्चे पक चुके हैं, शायद अब स्कूलों में न लिखवाया जाता हो, पर हमने तो जो निबंध सातवीं क्लास में लिखा था वो साल दर साल बारहवीं तक साथ निभाता रहा, उसमें कालिदास का एक श्लोक डाल देने से निबंध की छटा दर्शनीय हो गई थी, वह निबंध मैंने श्री व्यथित हृदय की बाबा आदम के जमाने की पीली पड़ चुकी किताब 'आधुनिक हिंदी निबंध' की सहायता से लिखा था, मुझे लगता है वसन्त के ज्यादा श्रृंगार से अंततः उनका हृदय व्यथित हुआ और उन्होंने अपना नाम ही बदल लिया! खैर! मन की गहराइयों में जमी हुई वसन्त की कल्पनाएं मैंने कभी सच में नहीं देखी, हाँ उन मनःचित्रों का आंशिक रूप यदा कदा देखा है। परवान पर चढ़ता वसन्त निहायत अजीब मौसम है, रजाई में दुबकी गर्मी बाहर निकल आई है और सूरज ने छतों पर धूप सेकते बूढ़ों को नीचे भेज दिया है। पंखा कितने नम्बर पर चलाना है और छोटा मोटा स्वैटर पहनना है या हाफ बुर्शट ही बहुत है की उलझन खड़ी हो गई है, क्योंकि माँ हमेशा कहती आई है, 'जाती जाती सर्द...

वैष्णवों के भरत..

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रामायण के पात्रों में भरत सर्वोत्तम हैं। रामायण का अति सुन्दर खण्ड 'चित्रकूट में राम भरत मिलाप' है। यह एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना है। दुनिया में चाहे कितना ही पाप चलता हो, एकाध ऐसे होते हैं, जिनसे धर्म की रक्षा होती रहती है। लोभ, छल, कपट आदि से पूरित इस दुनिया में कुछ आदमी ऐसे भी होते हैं, जिनसे संसार में परस्पर विश्वास, धैर्य और प्रेम का स्त्रोत भी प्रवाहित होता है, जिनसे लोगों को धर्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती रहती है। धर्म आखिर कभी नहीं मिट सकता। रामायण की कथा में भरत का  चरित्र ही हमारे उद्धार के लिए पर्याप्त है। लोग रामावतार की वास्तविकता पर विश्वास करें या न करें, भले श्री राम के चरित को ऋषि की कल्पना समझते रहें पर रामायण के सृष्टिकर्ता महर्षि वाल्मीकि सदैव पूजनीय हैं इसमें कोई सन्देह नहीं। भरत जैसे पात्र की सृष्टि करने के लिए कितना ज्ञान, कितनी भक्ति और कितना वैराग्य चाहिए। हमें भरत चरित्र को पढ़कर इतना जो आनंद होता है, उसका यही कारण हो सकता है कि हम सब के अंतः करणों में ज्ञान और भक्ति का भाव किसी कोने में अवश्य है, यद्यपि हमें उसका पता नहीं-- अन्यथा हम पशुओं स...

बड़े विशाल अन्तरिक्ष में मैं जाता हूँ...

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हमें अपने आपको एक विचारधारा में नहीं बांध लेना चाहिए, किसी मत-पंथ में नहीं बांध लेना चाहिए। हमारे मन को उड़ने की जगह देनी चाहिए, एक छेद तो रखना ही चाहिए जहां से नई बातें दिमाग में आ सकें, पुरानी बाहर निकल सकें। एक ही मान्यता में, एक सम्प्रदाय में, एक पंथ में, एक विचारधारा में मन को कैद करने से उसकी रचनात्मकता, सृजनात्मकता, उत्पादकता, नवीनता का गला घुट जाता है, कूपमण्डूक नहीं बनना चाहिए।                 पोखरे में भरा पानी खुदको ही महान समझता है, पर उसमें से एक नाली नदी में जोड़ दो, नदी में पहुंचकर  उसे भान होगा कि कैसी संकीर्णता में जी रहा था मैं, कितना अविकसित था, यहाँ नए जीव, नई वनस्पतियां उसे समृद्धतर कर देती हैं, फिर जब वह पहुंचता है समुद्र में तब पुनः उसकी सीमाएं खंडित हो जाती हैं, पुनः नई व्यापकता पाता है, फिर से हज़ारों नई चीजों को देख समझकर अपनी पुरानी दीनता का शोक करता है, पुराने अभिमान चकनाचूर हो जाते हैं।                योग की भाषा में हमारे मन में कोई विचार चित्त में कोई घर्षण पैदा कर...

हर चीज का मतलब निकालना बेमानी

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दो-तीन दिन पहले मैं जलियांवाला बाग़ गया था, हम सबके लिए वह शोक की भूमि है, वहाँ के बारे में अधिक लिखना नहीं चाहता पर एक बात का ज़िक्र करना चाहता हूँ। जलियांवाला बाग़ में फायरिंग के दौरान बहुत से लोग गोलियों से बचने के लिए वहाँ स्थित एक कुंए में कूद गए थे, सरकारी आंकड़ों के अनुसार कुंए से 120 शव निकाले गए थे, जिनमें बच्चे भी शामिल थे। वह कुंआ शहीद कुँआ कहलाता है। उस शहीद कुँए की चारों ओर फेंसिंग की गई है, परन्तु नीचे झाँक सकते हैं, नीचे झाँकने पर तारे से चमचमाते दीखते हैं। असल में लोग कुँए में सिक्के और नोट आदि डाल जाते हैं। कुँए में हज़ारों सिक्के व नोट थे, जिनमें 100-500 के नोट भी थे। वह कुँआ काफी गहरा है और मैं नहीं समझता कभी भी उस स्थाई फेंसिंग को हटाकर कुँए से यह राशि निकाली जाएगी, फिर क्यों लोग यह सब कुँए में फेंकते हैं। मेरे दोस्तों ने भी यह पूछा और इसे बेतुका बताया, पर मुझे कुछ और दिख रहा था, मैंने इतना ही कहा, हर बात का मतलब निकालने का कोई मतलब नहीं है, लोगों ने यह जो सिक्के डाले हैं, सुखद बात है, सबको पता है कि इन पैसों का कुछ नहीं होना फिर भी लोग डालते हैं, वह केवल भावना के क...

सब जीवों में ईश्वर को देखने वाला धर्म..

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हर जगह भगवान के होने का हिन्दू सिद्धांत केवल कहने मात्र का नहीं है। हिन्दू धर्म के हर ग्रन्थ, दर्शन, मत, सम्प्रदाय ने एक स्वर में सब जीवों में एकत्व की उद्घोषणा की है। यह सिद्धान्त न सिर्फ विराट हिन्दू समाज का मुख्य परिचायक है बल्कि यत्र-तत्र-सर्वत्र यदा-कदा-सर्वदा दृष्टिगोचर होता है। हिन्दू समाज इस सिद्धांत को अपने रोज के जीवन में जीता है। यजुर्वेद ने जहाँ, "यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यन्ति।" कहकर सभी भूतों को अपनी ही आत्मा जान कहा वहीं ऋग्वेद ने "रूपं रूपं प्रतिरुपो बभूव" कहकर अनन्त रूपों को प्रभु के अनन्त प्रतिबिम्ब ही बता दिया। फिर यदि हिन्दू सब प्राणियों में भगवान का ही रूप देखते हैं तो क्या आश्चर्य है? हिन्दू के बच्चे जब छोटे होते हैं तो उन्हें कुत्ते और गाय को रोटी खिलाना सिखाया जाता है, वहीं मुस्लिम बच्चे शिशुवस्था से अपने घरों में पशुओं की निर्मम हत्याओं के वीभत्स रक्तरंजित दृश्यों को देखकर बड़े होते हैं। राम कृष्ण बुद्ध महावीर की संतानें ही चींटियों का ध्यान रखकर कदम बढ़ाती हैं।  मांसाहारी भी चाहे जितने भी तर्क करें पर मांसाहार वैदिक मान्यताओं प...

समस्त धर्मों के पर्यावसान श्री कृष्ण

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द्रोणाचार्य सरीखे शास्त्रज्ञ गुरु भी धर्म का तत्व नहीं समझ पाए। भीष्म पितामह जैसे धर्म सम्राट को भी धर्म का तत्व शर शैय्या पर लेटने से पहले समझ न आया। यहाँ तक कि धर्म अधर्म के नाम पर दो फाड़ हुए राजाओं में धर्म पक्ष के अर्जुन भी धर्म के नाम पर युद्ध छोड़ भिखारी बनने को तैयार हैं। युद्ध जीतने के पश्चात भी धर्मराज युधिष्ठिर भीष्म के सामने नेत्रों में अश्रु लिए धर्म का तत्व जानने के लिए चरणानुगत हो रहे हैं। वहीं समस्त धर्म-अधर्म की उलझनों से घिरे वातावरण में, भ्रमित पात्रों के बीच, गायें चराने वाला ग्वाला धर्म का साक्षात् स्वरूप बना हुआ है। सारे शंकित पात्रों के प्रश्नों का समाधान आखिर में वही कर रहा है। उसके उपदेशों से जहाँ भिखारी बनने की इच्छा वाले अर्जुन रण में प्रलय मचाने को उतावले हो रहे हैं, वहीं अजेयानुजेय भीष्म अपने प्राणों को स्वयं थाली में सजाए खड़े हैं। जहाँ बड़े बड़े विद्वानों की बुद्धि भी भ्रमित हो अधर्म को धर्म मान लेती है वहीं श्री कृष्ण का हर एक कार्य मानो धर्म की गुत्थियों की गांठें खोल रहा है।              धर्म सदा देश-काल-परिस्थित...

नहीं उतारा मैंने अपना जनेऊ

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नहीं उतारा मैंने अपना जनेऊ इमाम ने बैठाए रखा चार दिन चार रात मैंने नहीं उतारा अपना जनेऊ छह लोगों का मेरा घर आलम्ब है मुझपर ही भूखे रहे घर पर मगर मैंने नहीं उतारा अपना जनेऊ मेरे चौसठ साल के बापू ने ढोयीं अपनी वृत्ताकार पीठ पर उस दिन लकड़ियाँ मगर मैंने नहीं उतारा अपना जनेऊ काफ़िर कहकर बिठाए रखा चार दिन चार रात कहा, 'अपने बाप को गाली दे' उनने चार गाली दीं 'हिंदी में लिखी अरबी पढ़ कुत्ते' पढ़ा लिया फातिहा 'उतार अपनी धोती' नंगा किया। माफ़ करना मेरे हमधरम भाइयों मैंने सब किया जो इमाम ने कराया मेरा भूखा बूढा बाप मेरे दुधमुंहे बच्चों को पाल रहा था घर पर इमाम ने माँगा फिर मेरा जनेऊ मैं उसके मुंह पर थूक आया भागा, पीछे से मारी उसने छुरी मेरी पीठ पर मगर मैंने उतारा नहीं अपना जनेऊ - मुदित मित्तल